मिनट्स ऑफ मीटिंग



दफ्तर में काम करते हुए या किसी मीटिंग में डिस्कशन करते हुए कई बार हमारे भीतर छुपा एक कलाकार, जो की सामान्यतः इन परिस्थितियों में हमारे सो जाने की प्रक्रिया में जाग ही जाया करता है, हमें तरह तरह के प्रलोभन देता है और लुभाता है कि हम कुछ ऐसा करें कि दिल की हर मुराद ....बस पूरी हो जाये

हम जैसे कुछ लोग हैं जो इस बात को स्वीकार करके आगे बढते जाते हैं और स्वप्न देखने का दुस्साहस करते हैं और कुछ सह कलाकार ऐसे होते हैं जो उस प्रक्रिया में अपना कैरक्टर ढूँढने में व्यस्त रहते हैं |

ठीक भी है, अगर ऐसे लोग ना हो तो हम जैसे लोगों के सपने कभी हकीकत नहीं बन पाएंगे | आखिर नींद भी एक धर्म है जिसे निभाना ही है...

इन्ही सपनों की झालर और विचारों की झड़ी जो की मीटिंग या ग्रुप डिस्कशन में ही जन्म लेती है और वहीँ पर मोक्ष पा जाती है उन्हें आपके सामने रख रही हू | 

मैं आभारी हूँ अपने उन सभी कर्मठ कर्मशील और जुझारू सहयोगियों की, दफ्तर की, और उन सभी मीटिंग्स की जहाँ मेरे सपनो को प्लेटफोर्म मिला और वो देखे गए... बिना किसी डर के..

उन्ही मीटिंग्स के आज मैं मिनट्स लिख रही हूँ ... जहाँ तक इनकी गोपनीयता का प्रश्न है तो  इन्हें लीक करने का आरोप मुझ पर लगने की संभावना है.......



( दो दिवसीय मीटिंग की शुरुआत में )


दिख रहा है धुंधला अब सब, सुना रहा है कोई अगला पिछला सब,
सपनो की दस्तक होने लगी है, खुली आंख ही सोने लगी है,

कोई बात कर रहा है बजट की,
कोई बोल रहा है प्लानिंग की कहीं,

मेरे दिमाग की लौ बुझ रही है अब,
आँखों ने भी साथ छोड़ दिया है अब,

हूँ मैं तलाश में एक छोटे से कोने की,
जहाँ थोड़ी सी जगह दिख जाये बस सोने की,

ना जाने कितने स्वप्न क़त्ल हो चुके अब तक...
हे भगवान ये मीटिंग अब चलेगी कब तक....

(अगले दिन)

आज तो बंद हैं ऊपर के द्वार,
कितना हुआ कल इस पर ना पूछो अत्याचार,

मैं देख रहा हूँ सामने तो दिख रहा है अब,
की क्या बचे हैं सिर पर बाल मेरे या उड़ गए हैं सब,

कोई राहत नहीं गर्म डिस्कशन से, पड़ी ठण्ड में ऐसी मार,
यूँ ही मैं करता हूँ हर मीटिंग में अपनी ही समझ पर वार,

चली आज मेरे दिल पर बजट की फिर तलवार,
हुआ छलनी मैं फिर से एक बार,

ये बेसलाइन स्टडी, इम्पेक्ट असेसमेंट, मिनट्स,
एजेंडा, बजट युटीलाईजेशन
यही शब्द बचे हैं दो चार ,
इनसे होगी प्रगति शायद सभी के यही हैं विचार

हम बनेंगे मजबूत और बढ़ेगी कैपेसिटी,
बस प्लानिंग हो जाये एक बार उन्हें इम्प्लीमेंट करने की,

जब जब मैं बात करता हूँ आगे बढ़ने की,
खींच लेते हैं सब मुझे कह कर की मीटिंग है कल की,

रात भर कौंधता है दिल में, कैसी होगी कल सवालों की मार,
डरते डरते जीता हूँ पहला हफ्ता हर महीने का हर बार,

निकाला जाता है जिस में तेल पीस पीस कर बार बार,
और आजकल है मेहरबानी ऐसी कि ये हफ्ता
आता है महीने में चार बार,


(दिन खत्म होते होते )

खर्च हो गया मैं, चुक गया हूँ अब,
हो चुका धुआं मैं, जल गया मेरा सब,
अब तो बस करो बहुत हुआ ‘चमत्कार’ अब
हे भगवान ये मीटिंग अब खत्म होगी कब..


-           संवेदनाओं सहित मेरे सहयोगियों को समर्पित

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